पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७३

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रात पी ज़मज़म प मै और सुबह दम
धोये धब्बे जामः-ए-एह्राम के

दिल को आँखों ने फँसाया, क्या मगर
यह भी हल्ले हैं तुम्हारे दाम के

शाह के है गुस्ल-ए-सेहत की ख़बर
देखिये, कब दिन फिरें हम्माम के

'अिश्क ने, गालिब निकम्मा कर दिया
वनः हम भी आदमी थे काम के

१८२

फिर इस अन्दाज से बहार आई
कि हुये मेहर-ओ-मह तमाशाई

देखो, अय साकिनान-ए-ख़ित्तः-ए-ख़ाक
इस को कहते हैं 'आलम आराई

कि जमी हो गई है सर ता सर
रूकश -ए- सत्ह -ए- चर्ख -ए- मीनाई

सब्जे को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई