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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१८०

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शौक-ए-दीदार में, गर तू मुझे गर्दन मारे
हो निगह, मिस्ल-ए-गुल-ए-शम्'अ, परीशाँ मुझसे

बेकसीहा-ए-शब-ए-हिज्र की वहशत, हय, हय
सायः खुर्शीद-ए-क़यामत में है पिन्हाँ मुझसे

गर्दिश-ए-साग़र-ए-सद् जल्वः-ए-रँगी, तुझसे
आइनःदारि-ए-यक दीदः-ए-हैराँ मुझसे

निगह-ए-गर्म से इक आग टपकती है, असद
है चराग़ाँ, खस-ओ-खाशाक-ए-गुलिस्ताँ मुझसे

१९२



नुक्तःची है, ग़म-ए-दिल उसको सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने

मै बुलाता तो हूँ उसको, मगर अय जज़्ब:-ए-दिल
उस प बन जाये कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने

खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे, भूल न जाये
काश, यों भी हो, कि बिन मेरे सताये न बने

गैर फिरता है, लिये यों तिरे खत को, कि अगर
कोई पूछे, कि यह क्या है, तो छुपाये न बने