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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१८२

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मैकदः गर चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ से पावे शिकस्त
मू-ए-शीशः दीदः-ए-सागर की मिशगानी करे

खत्त-ए-'आरिज़ से, लिखा है जुल्फ़ को उल्फ़त ने'अह्द
यक क़लम मंज़ूर है, जो कुछ परीशानी करे

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वह आके ख़्वाब में, तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख्वाब तो दे

करे है क़त्ल, लगावट में तेरा रो देना
तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे

दिखा के जुँबिश-ए-लब ही, तमाम कर हम को
न दे जो बोसः, तो मुँह से कहीं जवाब तो दे

पिलादे ओक से, साक़ी, जो हम से नफ़रत है
पियालः गर नहीं देता, न दे, शराब तो दे

असद, ख़ुशी से मिरे हाथ पाँव फूल गये
कहा जो उसने, ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे