पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१९

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यह आकस्मिक बात नही है कि उर्दू की पुरानी शागिरी से विद्रोह करनेवाला हाली गालिब का शिष्य था और नयी शिक्षा पर बल देनेवाला सर सैयद ग़दर से पहले नये विज्ञान और उद्योग की प्रशंसा गालिब से सुन चुका था। और यह भी आकस्मिक बात नही है कि देशभक्त शिबली की गजलों मे गालिब की प्रतिध्वनि है और इकबाल के चितन और कला पर गालिब के चितन और कला के सूर्य की किरणे पड़ रही है। जोश मलीहाबादी से लेकर आज के शा पिरो तक कोई ऐसा नहीं है जो किसी न किसी रूप मे गालिब से प्रभावित न हो। ग़ालिब के अनगिनत शेर उत्तरी भारत के लोगो की जबान पर चढ़े हुए है और उर्दू जाननेवाला शायद ही कोई घर दीवान-ए-ग़ालिब से खाली हो । ___ आज हमारे हाथ में गालिब की शा अिरी दो युगो की तर्जुमान बन कर आयी है। उसमे एक युग का मदिरालस और दूसरे युग की मादकता है, जाती हुई रात की वेदना और उदीयमान उषा का हर्ष मिश्रित होगया है। गालिब की महानता केवल इसमें नहीं है कि उसने अपने युग की आतरिक व्याकुलता को समेट लिया बल्कि इसमें कि उसने नयी व्याकुलता पैदा की। उसकी शाजिरी अपने युग के बंधनो को तोड़ देती है और भूत और भविष्य के विस्तार में फैल जाती है। ग्रालिब ने अपने हर अनुभव को जो एक अत्यंत मृदुल सौन्दर्यबोध रखनेवाले मस्तिष्क की प्रक्रिया थी, मानवी मनोविज्ञान की आग में तपाकर पिघलाया है, व्यापक नियम की कसौटियो पर कसा है और फिर काव्य के रूप में ढाला है । तब उसके यहाँ एक विश्व कवि का स्वर पैढा हुआ है और वह जीवन के हर क्षण का कवि बन गया है। वह मानव-आत्मा की बहुरंगी अवस्थाओ से परिचित है। अत्यधिक हर्ष हो या अत्यधिक निराशा, शका की दशा हो या कल्पना की जादूगरी हो, दर्शन की गूढ़ समस्याएँ हो या अत्यंत निम्नकोटि की वस्तुएँ, चुम्बनों की मादकता हो या अलिगन का आनंद, हर स्थिति में गालिब की शाअिरी साथ देगी। निम्नतर कोटि के कवि उसकी किसी एक अदा को अपना विचार-दर्शन बना सकते हैं, लेकिन ग्रालिब एकसाथ अपनी सारी अदाओ का जादू डालता है। इस शा पिरी का रसास्वादन कर सकने के लिए केवल शाब्दिक अर्थों का ज्ञान पर्याप्त नही है। शेरो को बार-बार पढ़ना भी आवश्यक है। फिर शब्द अक्षरो के समूह के रूप में नहीं बल्कि चित्रो के रूप में पहचाने जायेगे। मनुष्यो के चेहरो की तरह वे धीरे-धीरे सुपरिचित बनेगे और अपना व्यक्तित्व प्रकट करेगे। फिर शब्दो की ध्वनि का लोच महसूस होगा और उनके परस्पर टकराव की झनकार से कान परिचित होगे। तब जाकर अर्थ-संगीत और आतरिक स्वर के द्वार खुलेगे। इस तरह शाब्दिक अर्थों से गुजरकर काव्यात्मक अर्थों तक