पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१९०

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क़द-ओ-गेसू में, क़ैस-ओ-कोहकन की आज़माइश है
जहाँ हम हैं वहाँ दार-ओ-रसन की आज़माइश है

करेंगे कोहकन के हौसले का इम्तिहाँ आख़िर
हनोज़ उस खस्तः के नीरू-ए-तन की आज़माइश है

नसीम-ए-मिस्र को क्या पीर-ए-कन‘आँ की हवाख़्वाही
उसे यूसुफ़ की बू-ए-पैरहन की आज़माइश है

वह आया बज़्म में देखो न कहियो फिर कि गाफ़िल थे
शिकेब-ओ-सब्र-ए-अह्ल-ए-अंजुमन की आज़माइश है

रहे दिल ही में तीर, अच्छा, जिगर के पार हो, बेह्तर
ग़रज़ शिस्त-ए-बुत-ए-नावक फ़िगन की आज़माइश है

नहीं कुछ सुब्हः-ओ-जुन्नार के फन्दे में गीराई
वफ़ादारी में शैख़-ओ-बर्हमन की आज़माइश है

पड़ा रह अय दिल-ए-वाबस्तः बेताबी से क्या हासिल
मगर फिर ताब-ए-जुल्फ़-ए-पुरशिकन की आज़माइश है

रग-ओ-पै में जब उतरे ज़हर-ए-ग़म तब देखिये क्या हो
अभी तो तल्ख़ि-ए-काम-ओ-दहन की आज़माइश है

वह आवेंगे मिरे घर, वा‘दः कैसा, देखना, ग़ालिब
नये फ़ितनों में अब चर्ख़-ए-कुहन की आज़माइश है