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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१९१

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कभी नेकी भी उसके जी में गर आ जाये है मुझसे
जफायें कर के अपनी याद शर्मा जाये है मुझसे

ख़ुदाया, जज़्बः-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खेंचता हूँ और खिचता जाये है मुझसे

वह बदख़ू, और मेरी दास्तान - ए - अिश्क़ तूलानी
‘अिबारत मुख्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझसे

उधर वह बदगुमानी है, इधर यह नातवानी है
न पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझसे

सँभलने दे मुझे, अय नाउमीदी, क्या क़यामत है
कि दामान-ए-खयाल-ए-यार, छूटा जाये है मुझसे

तकल्लुफ बरतरफ़, नज्ज़ारगी में भी सही, लेकिन
वह देखा जाये, कब यह जुल्म देखा जाये है मुझसे

हुये हैं पाँव ही पहले, नबर्द-ए-‘अिश्क में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझसे

क़यामत है, कि होवे मुद्द‘अी का हमसफर, ग़ालिब
वह काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझसे