पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२०३

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भरम खुल जाये, जालिम, तेरे कामत की दराजी का अगर इस तुर्रः-ए-पुर पेच-ो-ख़म का पेच-ो-खम निकले मगर लिखवाय कोई उसको ख़त, तो हम से लिखवाये हुई सुब्ह, और घर से कान पर रख कर कलम निकले हुई इस दर में मंसूब मुझसे बादः आशामी फिर आया वह जमानः, जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले हुई जिन से तवनको अ, ख़स्तगी की दाद पाने की वह हम से भी जियादः खस्तः-ए-तेरा-ए-सितम निकले महब्बत में नहीं है फ़र्क, जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफ़िर प दम निकले कहाँ मैखाने का दरवाजः, गालिब, और कहाँ वा अिज पर इतना जानते हैं, कल वह जाता था, कि हम निकले २२१ कोह के हों बार-ए-खातिर, गर सदा हो जाइये बेतकल्लुफ, अय शरार-ए जस्तः, क्या हो जाइये बैज: पासा, तँग बाल-यो-पर प है कुँज-ए-क़फ़स अज सर-ए-नौ जिन्दगी हो, गर रिहा हो जाइये