पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२०२

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जिन्दगी में तो वह महफ़िल से उठा देते थे । देखू, अब मर गये पर, कौन उठाता है मुझे रौंदी हुई है, कौकबः-ए-शरियार की इतराये क्यों न खाक, सर-ए-रहगुजार की जब उसके देखने के लिये आयें बादशाह लोगों में क्यों नुमूद न हो, लालःजार की भूके नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्ताँ के हम, वले क्योंकर न खाइये, कि हवा है बहार की २२० । हजारों ख़्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश प दम निकले बहुत निकले मिरे अर्मान, लेकिन फिर भी कम निकले डरे क्यों मेरा कातिल, क्या रहेगा उसकी गर्दन पर वह लूँ, जो चश्म-ए-तर से 'ग्रुम्र भर यों दम बदम निकले निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे, लेकिन बहुत बे आबरू होकर तिरे कूचे से हम निकले