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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/३४

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बक़द्र-ए-ज़र्फ़ है, साक़ी, ख़ुमार-ए-तश्नः कामी भी
जो तू दरिया-ए-मै है, तो मैं खमियाज़: हूँ साहिल का

१३

महरम नहीं है तू ही नवाहा-ए-राज़ का
याँ वर्न: जो हिजाब है, पर्दः है साज़ का
रँग-ए-शिकस्तः, सुब्ह-ए-बहार-ए-नज़ारः है
यह वक्त है शिगुफ़्तन-ए-गुलहा-ए-नाज़ का
तू और सू-ए-ग़ैर नज़रहा-ए-तेज़ तेज़
मैं और दुख तिरी मिशःहा-ए-दराज़ का
सर्फ़: है ज़ब्त-ए-आह में मेरा, वगर्नः मैं
तो'मः हूँ, एक ही नफ़स-ए-जाँ गुदाज़ का
हैं, बसकि जोश-ए-बादः से, शीशे उछल रहे
हर गोशः-ए-बिसात, है सर शीशः बाज़ का
काविश का दिल करे है तक़ाजा, कि है हनोज़
नाख़ुन प क़र्ज, इस गिरह-ए-नीमबाज़ का
ताराज-ए-काविश-ए-ग़म-ए-हिजराँ हुआ, असद
सीन:, कि था दफ़ीनः गुहरहा-ए-राज़ का