पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५१

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यास-ओ- उम्मीद ने, यक 'अरबदः मैदाँ माँगा 'अिज्ज़-ए-हिम्मत ने तिलिस्म-ए-दिल-ए-साइल बाँधा न बंधे तशनिगि-ए-जौक के मजनूं, ग़ालिब गरचेः दिल खोल के दरिया को भी साहिल बाँधा ३१ मैं, और बज्म-ए- मै से, यों तश्न:काम पाऊँ गर मैं ने की थी तौबः, साकी को क्या हुआ था है एक तीर, जिस में दोनों छिदे पड़े हैं वह दिन गये, कि अपना दिल से जिगर जुदा था दरमान्दगी में ग़ालिब, कुछ बन पड़े, तो जानूँ जब रिश्तः बेगिरह था, नाखुन गिरह कुशा था घर हमारा, जो न रोते भी, तो वीराँ होता बहर, गर बह न होता, तो बयाबाँ होता तंगि-ए-दिल का गिला क्या, यह वह काफ़िर दिल है कि अगर तंग न होता, तो परीशाँ होता