पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५२

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बाद-ए-यक उम्र-ए-वर अ, बार तो देता, बारे काश, रिज्वाँ ही दर-ए-यार का दरबाँ होता ३३ न था कुछ, तो खुदा था, कुछ न होता, तो खुदा होता डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता हुआ जब राम से यों बेहिस, तो राम क्या सर के कटने का न होता गर जुदा तन से, तो जानू पर धरा होता हुई मुद्दत, कि गालिब मर गया, पर याद आता है वह हर इक बात पर कहना, कि यों होता, तो क्या होता यक ज़र्रः-ए-ज़मीं नहीं बेकार, बारा का याँ जाद: भी, फ़तीलः है लाले के दाग़ का बे मै किसे है ताक़त-ए-आशोब-ए-पागही खेंचा है 'अिज्ज-ए-हौसल: ने ख़त अयारा का बुलबुल के कार-ओ-बार प हैं, ख़न्दःहा-ए-गुल कहते हैं जिसको 'प्रिश्न, ख़लल है दिमाग़ का