सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

बा'द-ए-यक उम्र-ए-वर'अ, बार तो देता, बारे
काश, रिज्वाँ ही दर-ए-यार का दरबाँ होता

३३


न था कुछ, तो ख़ुदा था, कुछ न होता, तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता

हुआ जब ग़म से यों बेहिस, तो ग़म क्या सर के कटने का

न होता गर जुदा तन से, तो जानू पर धरा होता

हुई मुद्दत, कि ग़ालिब मर गया, पर याद आता है
वह हर इक बात पर कहना, कि यों होता, तो क्या होता

३४


यक ज़र्रः-ए-ज़मीं नहीं बेकार, बाग़ का
याँ जाद: भी, फ़तीलः है लाले के दाग़ का

बे मै किसे है ताक़त-ए-आशोब-ए-आगही
खेंचा है 'अिज्ज़-ए-हौसल: ने ख़त अयाग़ का

बुलबुल के कार-ओ-बार प हैं, ख़न्दःहा-ए-गुल
कहते हैं जिसको 'अिश्क़, ख़लल है दिमाग़ का