पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५५

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जिन्दगी यों भी गुज़र ही जाती क्यों तिरा राहगुजर याद आया क्या ही रिज्वाँ से लड़ाई होगी घर तिरा खुल्द में गर याद आया आह वह जुरअत-ए-फ़रियाद कहाँ दिल से तंग आ के जिगर याद आया फिर तिरे कूचे को जाता है ख़याल दिल-ए-गुमगश्तः, मगर याद आया कोई वीरानी सी वीरानी है दश्त को देख के घर याद आया मैं ने मजनूं प लड़कपन में, असद संग उठाया था, कि सर याद अाया हुई ताख़ीर, तो कुछ बासि -ए-ताख़ीर भी था आप पाते थे, मगर कोई ‘अिनाँगीर भी था तुम से बेजा, है मुझे अपनी तबाही का गिला उसमें कुछ शाइबः-ए-खूबि-ए-तक़दीर भी था