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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/५४

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'अिज्ज़ से अपने यह जाना, कि वह बदख़ू होगा
नब्ज़-ए-ख़स से तपिश-ए-शो'ल:-ए-सोज़ाँ समझा

सफ़र-ए-'अिश्क में की ज़ो'फ़ ने राहत तलबी
हर क़दम साये को मैं अपने शबिस्ताँ समझा

था गुरेज़ाँ मिश:-ए-यार से दिल, ता दम-ए-मर्ग
दफ़-'ए-पैकान-ए-क़ज़ा, इस क़दर आसाँ समझा

दिल दिया जान के क्यों उसको वफ़ादार, असद
ग़लती की, कि जो काफ़िर को मुसलमाँ समझ

३६


फिर मुझे दीदः-ए-तर याद आया
दिल, जिगर तश्न:-ए-फ़रियाद आया

दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फिर तिरा वक्त-ए-सफ़र याद आया

सादगीहा-ए-तमन्ना, या'नी
फिर वह नैरंग-ए-नज़र याद आया

'अज़्र-ए-वामान्दगी, अय हसरत-ए-दिल
नालः करता था, जिगर याद आया