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वह्शत-यो-शेफ़्तः अब मरसियः कहवें, शायद
मर गया ग़ालिब-ए-आशुफ्तः नवा, कहते हैं
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आबरू क्या ख़ाक उस गुल की, कि गुलशन में नहीं
है गरीबाँ नँग-ए-पैराहन, जो दामन में नहीं
ज़ो'फ़ से, अय गिरियः, कुछ बाक़ी मिरे तन में नहीं
रँग हो कर उड़ गया, जो ख़ूँ कि दामन में नहीं
हो गये हैं जम'अ, अज्ज़ा-ए-निगाह-ए-आफ़ताब
ज़र्रें, उस के घर की दीवारों के रौज़न में नहीं
क्या कहूँ तारीकि-ए-ज़िन्दान-ए-ग़म, अंधेर है
पँबः नूर-ए-सुब्ह से कम, जिस के रौज़न में नहीं
रौनक़-ए-हस्ती है 'अिश्क-ए-ख़ानः वीराँ साज़ से
अंजुमन बे शम्'अ है, गर बर्क़ ख़िर्मन में नहीं
ज़ख़्म सिलवाने से, मुझ पर चारः जूई का है ता'न
ग़ैर समझा है; कि लज़्ज़त ज़ख़्म-ए-सूज़न में नहीं
बसकि हैं हम इक बहार-ए-नाज़ के मारे हये
जल्वः-ए-गुल के सिवा, गर्द अपने मदफ़न में नहीं