पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

क़तरः क़तरः, इक हयूला है, नये नासूर का लूँ भी, जौक़-ए-दर्द से, फ़ारिरा मिरे तन में नहीं ले गई साक्री की नख्वत, कुल्जुम अाशामी मिरी मौज-ए-मैं की आज रग मीना की गर्दन में नहीं हो फ़िशार-ए-जो फ़ में क्या नातवानी की नुमूद क़द के झुकने की भी गुंजाइश मिरे तन में नहीं थी वतन में शान क्या गालिब, कि हो गुर्बत में क़द्र बे तकल्लुफ़, हूँ वह मुश्त-ए-ख़स, कि गुलखन में नहीं 'श्रोड्दे से मद्ह-ए-नाज़ के, बाहर न आ सका गर इक अदा हो, तो उसे अपनी क़ज़ा कहूँ हल्ने हैं चश्महा-ए-कुशादः ब सू-ए-दिल हर तार-ए-जुल्फ़ को निगह-ए-सुर्मः सा कहूँ मैं और सद हजार नवा-ए-जिगर ख़राश तू, और एक वह न शुनीदन, कि क्या कहूँ जालिम, मिरे गुमाँ से मुझे मुनफ़'अिल न चाह हय, हय, ख़ुदा न करदः, तुझे बेवफ़ा कहूँ