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असफल शिक्षा

इसमें यह बात भी जोड़ दीजिए कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीय व्यवसाय को नष्ट करने की नीति का जान-बूझकर अनुसरण किया था। भारतीय वस्त्र-व्यवसाय के भस्मावशेष पर ही लङ्काशायर का उद्भव हुआ है। व्यापार-स्वातन्त्र्य के नाम पर उन्होंने 'छोटे व्यवसायों की रक्षा करना ही नहीं अस्वीकार कर दिया वरन् उनकी उन्नति में भी बाधा उपस्थित की। बैंक और करेंसी की नीति से भारतीय कारीगर को कम अड़चन नहीं पहुंची। वर्तमान वैज्ञानिक उन्नति से जिसने सर्वत्र कृषि के संसार में क्रान्ति उत्पन्न कर दी भारतीय कृषि-व्यवसाय को कोई प्रशंसायोग्य लाभ नहीं पहुंचा। जान पड़ता है कि भारत-सरकार ने व्यावहारिक कृषि-विज्ञान के साथ कुछ दिलचस्पी लेना प्रारम्भ किया है पर जो थोड़े से कृषि विद्यालय हैं भी उनमें से ऐसे ही ग्रेजुएट निकले हैं जिन्हें व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा सिद्धान्तों का ही ज्ञान अधिक है। मैं समझता हूँ स्वर्गीय सर गङ्गाराम ने ही, जिन्हें मिस मेयो—'वह ख़ासा बुड्ढा पञ्जाबी' कहती है, कुछ वर्ष पहले लायलपुर के कृषि कालेज में व्याख्यान देते हुए यह कष्टदायक बात कही थी कि इस कालेज के ग्रेज्युएट पुलिस-विभाग में नौकरी करने के लिए कभी कभी उनसे पर्चा लिखवाने जाते थे। जब कृषि और व्यवसायों की ऐसी दशा है तब क्या यह कोई आश्चर्य है कि शिक्षित भारतीय युवक इस नौकरशाही के अधीन क्लर्की की नौकरी पर ही इतना अधिक निर्भर रहते हैं?