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शिक्षा और द्रव्योपार्जन


मिलान किया जाय तो ज्ञात होगा कि अन्य देशों में कुल कर का जो भाग शिक्षा पर व्यय होता है उससे यह न्यून नहीं है।"

मिस मेयो का अङ्करें पर विचार करने का यह निराला ही ढङ्ग है। वह म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक्ट बोर्डों की सहायता ही नहीं सम्मिलित करती किन्तु फ़ीस और जनता का दान भी इसी में जोड़ देती है। १९२३-२४ में सरकार की कुल सहायता, प्रान्तीय और केन्द्रीय मिलाकर केवल ९,७४,७६,००० रु॰ की अर्थात् शिक्षा पर जो कुल व्यय हुआ उसके आधे से भी कम थी।

१९२४-२५ में—इसके आगे के अङ्क अभी प्राप्त नहीं हैं—सरकारी सहायता, समस्त साधनों से प्राप्त २०,८७,४८,००० रुपयों में से केवल ९,९८,००,००० रुपये थी। १९२४-२५ की सरकारी रिपोर्ट में ४ थे पृष्ठ पर लिखा है कि 'भारत में शिक्षा पर सरकार का कुल खर्च ९,९८,०१,५९४ रुपया हुआ है जिसका औसत प्रति व्यक्ति केवल चार आना है। [इसे ब्रिटिश करेन्सी का करीब ४ पेन्स और अमरीकन करेन्सी का करीब ८ पेन्स समझना चाहिए] इसी बीच में सरकार द्वारा शिक्षा पर व्यय किये गये कुल धन में ४८.९ से ४७.९ प्रतिशत तक कमी हो गई है पर फीस से प्राप्त धन में २१.८ से २२.४ प्रति शत तक वृद्धि हुई है।' भारतीय शिक्षा के सब विभागों में मिला कर ५०,००० से भी कम योरपीय विद्यार्थियों के लिए सरकारी कोष से प्रति वर्ष लगभग ५० लाख रुपया व्यय किया जाता है। यह प्रतिवर्ष प्रति विद्यार्थी १०० रुपया पड़ता है। समस्त भारत में बँटी योरपीयन जनसंख्या पर जो २ लाख से भी कम है, यह प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति २५ रु॰ से भी अधिक पड़ता है। अब इसकी तुलना प्रति भारतीय की शिक्षा के लिए व्यय की गई तुच्छ चवन्नी से कीजिए। कोई राष्ट्रीय शासन कभी शिक्षा को इतनी तुच्छ वस्तु समझ सकता है जितना कि वर्तमान सरकार भारत के लिए समझ रही है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस के धनी और साधन-सम्पन्न शासन की बातें जाने दें। तब भी यह सबको मालूम है कि उदार काल्मीज़ सरकार मेक्सिको जैसे दीन देश की शिक्षा के लिए क्या