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दुखी भारत


उन्हें अच्छी लगती थीं या जिन्हें उस समय के समाज ने स्वीकार कर लिया था। स्त्रियों के सम्बन्ध में इन धर्मशास्त्रों में जिन बातों का वर्णन है वे संक्षेप में निम्नलिखित हैं:-

(क) ने इस बात पर जोर देते हैं कि बालिकाओं का विवाह जब रजोदर्शन हो तब या उसके तीन वर्ष के भीतर हो जाना चाहिए। रजोदर्शन से पूर्व के विवाहों की भी वे स्वीकृति देते हैं।

(ख) ऐसी परिस्थिति में वर या वधू की अनुमति प्रदान का प्रश्न ही नहीं रह जाता। प्रेमाभिनय या प्रेम-प्रकाश करने का भी अवसर नहीं प्राप्त हो सकता।

(ग) परन्तु यदि संरक्षक अपने आश्रित कुमारियों का रजोदर्शन के पश्चात् तीन वर्ष के भीतर विवाह न कर दें तो कुमारियों को यह आज्ञा है कि वे माता-पिता की अनुमति या स्वीकृति का बिना ध्यान किये अपने मन का पति चुन सकती हैं। परन्तु रजोदर्शन से पूर्व बालिकाओं का विवाह कर देने की ऐसी भयप्रद और कठोर अाज्ञा है कि इस सम्बन्ध में असावधानी करके कठिन दण्ड भोग करने का माता-पिता साहस ही नहीं कर सकते। इस प्रकार यह प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित होगई।

हमें इस बात का पूर्ण निश्चय नहीं है कि भारत में मुसलमानों का प्राधिपस्य स्थापित होने के समय यह प्रथा जैसी सर्वमान्य हो गई थी वैसी ही उसके पूर्व भी थी। क्योंकि मुसलमानों के शासन के एक शताब्दी पूर्व तक कन्याओं के अधिक आयु में अपने पति चुनने और विवाह करने के उदाहरण मिलते हैं। राजा दाहिर की पुन्नियाँ जो ईसा के पश्चात् आठवीं शताब्दी में बन्दी बनाई गई थीं और जिन्होंने अपनी असाधारण बुद्धि-द्वारा अपने बन्दी बनानेवालों से पूरा बदला चुका लिया था, अवश्य ही युवती कुमारियों रही होंगी। कन्नौज की राजकुमारी संयोगिता-जिसने अपने पिता की इच्छाओं के विरुद्ध दिल्ली के नरेश पृथ्वीराज को अपना पति बरण किया था-युवती कुमारी ही थी। ये उदाहरण किसी प्रकार भी इने गिने नहीं कहे जा सकते, क्योंकि मुसलमानों के आक्रमण के पूर्व काल में जिन नाटकों की रचना हुई है के युवती कुमारियों के अपनी पसन्द के युवकों से प्रेम करने और इच्छानुसार उनके