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दुखी भारत

उसके साथ जाती है। सवारी का कार्य्य समाप्त होने पर वह जयदेव के गीतगोविन्द से एक या दो गान गाती है। इसके पश्चात् वह देवता को शयन कराने के कुछ मंत्र गाती है। तब उसका रात्रि का कार्य्य समाप्त हो जाता है। जब वह शरीर से इन कर्तव्यों के अयोग्य हो जाती है तब एक विशेष संस्कार––तोतुवैक्कुआ (वृद्धमाता)––द्वारा इससे पृथक् कर दी जाती है। उस दशा में भी उसे निर्वाह के लिए वेतन-स्वरूप कुछ पाने का हक़ रहता है। जब वह मर जाती है तो उसके दाह-संस्कार आदि का व्यय मन्दिर की ओर से किया जाता है। जब वह अपनी मृत्यु-शय्या पर होती है तब पुजारी उसकी सेवा करने आता है और मृत्यु के पश्चात् ही कुछ क्रियाओं के पश्चात् उसके शरीर में केशर का लेप कर देता है।"

पाठक स्वयं इस बात पर विचार करें कि क्या 'गोल्डेन बाऊ' का वर्णन स्थान स्थान पर मदर इंडिया से वास्तव में भिन्न नहीं है।

देवदासियों की प्रथा निस्सन्देह एक पैशाचिक प्रथा है और इसके लिए प्रत्येक दक्षिण भारतीय को लज्जित होना चाहिए। परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि दक्षिणी प्रान्त के बाहर इस प्रथा को कोई नहीं जानता। मिस मेयो का यह कथन कि 'देश के कुछ भागों में' यह प्रथा प्रचलित है नितान्त भ्रमोत्पादक है। दक्षिणी प्रान्त में भी मलाबार जैसे बड़े खण्डों में यह अज्ञात है। यह कहना कि 'पाँच वर्ष की आयु में ही वह पुजारी की निजी वेश्या बन जाती है' स्पष्ट रूप से एक बड़ी भद्दी अतिशयोक्ति प्रतीत होती है। इस प्रथा में सबसे बड़ी बुराई यही है कि इन स्त्रियों का मन्दिरों के साथ सम्बन्ध होता है। दक्षिण-भारत में कुछ मन्दिर ऐसे हैं जिन्हें हम पुजारियों द्वारा सञ्चालित वेश्यागृह कह सकते हैं। परन्तु यहाँ यह कह देना अनुचित नहीं है कि योरप के कुछ मठ और गिरजाधर पहले ऐसे ही थे और कुछ अब भी इससे अच्छी अवस्था में नहीं हैं।

डाक्टर सैङ्गर-द्वारा लिखित वेश्या-वृत्ति के इतिहास में निम्नलिखित बातें मिलती हैं:–

"क्लिमेंट द्वितीय नामक पादरी ने एक आज्ञा निकाली थी कि यदि वेश्याएँ अपनी आय का कुछ भाग गिरजाघर को दें तो हम उनकी वृत्ति को धर्मानुकूल कह सकते हैं।