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दुखी भारत


खिंचता चला जाता था और व्यापार की मांग बढ़ती जाती थी। अगस्तस के शासन काल के समय से योरप और एशिया के बीच में जो व्यापार होता था वह एशिया के ही अनुकूल अधिक था। रुपये की कमी के कारण इँगलेंड में करसी का महत्त्व बहुत घट गया था।

विप्लव-काल के सम्बन्ध में रडिङ्ग लिखते हैं:-

"उस समय रुपये का मूल्य इतना घट गया था और नकली सिक्के इतने चल पड़े थे कि अच्छी चांदी को लोग प्राधे मूल्य पर भी मुश्किल से लेते थे और अधिकांश सिक्के लोहे, पीतल या तांबे के टुकड़े-मात्र थे। और कुछ इसके अतिरिक्त कि ज़रा धुले हुए हों और कोई विशेषता नहीं रखते थे।"

१७१० और १७२० ईसवी के बीच के १० वर्षों में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने औसत दर्जे पर ४३,४४,००० पौंड लागत की सोने-चांदी की ईंटे इंगलैंड से बाहर भेजी थीं।

इस समय इँगलैंड अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे कर रहा था? इस विषय का इतिहास में बड़ा औपन्यासिक वर्णन किया गया है। जेवन्स ने कहा है कि 'एशिया मूल्यवान् धातुओं का एक बड़ा भाण्डार है। वहाँ के निवासी इन धातुओं को पृथ्वी में गाड़ रखते हैं। श्रतीत-काल से पूर्व में धन एकत्र करने की प्रथा चली आ रही है। प्राचीन काल में प्रत्येक हिन्दू, गोलकुण्डा के रत्नों से देदीप्यमान मुग़ल से लेकर अपनी तुच्छ आय से भूखे मरते हुए किसान तक, दुर्दिन के लिए कुछ धन पृथक इकट्ठा कर रखता था:-

"शताब्दियों से लाखों मनुष्यों के एकत्रित किये इ. धन पर अँगरेज़ों ने अधिकार कर लिया और उसे वे लन्दन ले गये। ठीक उसी प्रकार जैसे रोमन लोग यूनान और पोतस में लूट से मिले माल को इटली ले गये थे। यह कोई नहीं कह सकता कि इस धन का मूल्य कितना था। परन्तु ग्रह लाखों पौड के लगभग रहा होगा। उस समय यारपवासियों के पास जितने रत्न और जवाहर रहे होंगे यह धन उससे कहीं अधिक रहा होगा*[१]।"

  1. * ब्रूक्स आदम्स-कृत 'सभ्यता की उन्नत्ति और अवनति के सिद्धान्त' पृष्ठ ३०५।