पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/३४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२६
दुखी भारत

वह उन वस्त्रों के उस मूल्य से जो उनके बाज़ार में स्वतन्त्रता के साथ बेचे जाने पर मिलता प्रायः १५ या कभी कभी ४० प्रतिशत तक कम होता है।... जो बुनकर अपनी असमर्थता-वश कम्पनी के एजंटों द्वारा बलपूर्वक स्वीकार कराई गई इस शर्त को, जो बङ्गाल में सर्वत्र मुतचुलका के नाम से विख्यात है, पूरी नहीं कर पाते तो उनकी वस्तुएँ उसी समय छीन ली जाती हैं और उसी स्थान पर उन्हें बेच कर कम्पनी का घाटा पूरा कर लिया जाता है। और रेशम का काम करनेवालों के साथ भी, जिन्हें निगोद कहते हैं, इतना अधिक अन्याय किया गया कि उन बेचारों ने अपने अंगूठे काट डाले ताकि उन्हें रेशम तैयार करने के लिए विवश न होना पड़े।"

इस सम्बन्ध में लार्ड क्लाइव ने भी इँग्लैंड में रहनेवाले कम्पनी के सञ्चालकों को कड़े शब्दों में एक वर्णनात्मक पत्र लिखा था[१]। परन्तु स्वयं क्लाइव के लाभों के सम्बन्ध में मेकाले लिखते हैं:—

"क्लाइव के धन एकत्र करने के मार्ग में स्वयं उसके संयम के अतिरिक्त और कोई बाधक नहीं था। बङ्गाल के राज-कोष का द्वार उसके लिए खुला था। भारतीय राजाओं के अग्रचलित सिक्कों का ढेर लगा था। उनमें योरप के चाँदी और सोने के वे सिक्के पहचाने नहीं जा सकते थे जिनकी सहायता से योरप का कोई भी जहाज़ पहले केप आप गुडहोप का पता लगा सकता था और वेनिस के सौदागर पूर्व की सब प्रकार की वस्तुएँ और मसाले खरीद सकते थे। क्लाइव सोने और चाँदी के ढेरों में होकर चलता था। उन ढेरों के ऊपर हीरों और लालों का ढेर लगा होता था। उसमें से वह अपनी इच्छानुसार लेने के लिए स्वतन्त्र था।"

क्लाइव के विलायत चले जाने पर क्या हुआ इसका वर्णन संक्षेप में मैकाले ने इस प्रकार किया है:—

"इस प्रकार एक ओर तो कलकत्ता में शीघ्रता के साथ विपुल सम्पत्ति जोड़ी जा रही थी और दूसरी ओर ३ करोड़ मानव-प्राणी दरिद्रता की पराकाष्टा पर पहुँचा दिये गये थे। अँगरेज़ों का शासन बहुत बिगड़ गया था। वैसा बुरा शासन कभी भी किसी समाज के अनुकूल देखा नहीं गया।"


  1. मालकम-लिखित क्लाइव का जीवन-चरित्र, पृष्ठ ३७९