माननीय एफ॰ जे॰ शोर, जो एक बार बङ्गाल के शासक रह चुके थे, अपनी 'भारतीय समस्या-सम्बन्धी टिप्पणियों में कहते हैं[१]:––
"मुझे इस देश में आये सत्रह वर्ष से अधिक हो गये; परन्तु पहले पहल कलकत्ता पहुँचने पर और वहाँ लगभग एक वर्ष पर्यन्त रहने पर मैंने वहाँ की अँगरेज़ जनता में जो आनन्ददायिनी और दृढ़ धारणा पाई थी––कि भारतवासियों का यह बड़ा सौभाग्य है कि इस देश में अँगरेज़ी राज्य स्थापित हो गया––उसका मुझे अब तक स्मरण बना......
"इस प्रकार भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन के सिद्धान्तों और उसकी करतूतों के सम्बन्ध में जाँच करने की मेरी इच्छा हुई। इस प्रयोग में मैंने यहाँ के लोगों के अपने सम्बन्ध में और अपनी सरकार के सम्बन्ध में जो विचार मालूम किये उनसे मुझे कोई घाटा नहीं हुआ। मुझे आश्चर्य तभी होता जब इसे किसी दूसरे रूप में पाता। [सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्र को प्रत्येक उपाय से अपने स्वार्थ और लाभ का साधन बनाना ही अँगरेज़ों का मुख्य उद्देश्य रहा। भारतवासियों पर अधिक से अधिक कर लादे गये; एक के पश्चात् दूसरे प्रत्येक प्रान्त पर, जो हमारे अधिकार में आया, हमने खूब कर लगाया; और हमें इस बात का सदा गर्व रहा कि देशी नरेश जितना कर वसूल कर सकते थे, हम उससे अधिक वसूल कर रहे हैं। दर्जा या पद से, जिसे स्वीकार करने के लिए छोटे से छोटे अँगरेज़ से प्रार्थना की जा सकती है, भारतवासियों को वञ्चित रक्खा गया है] [कोष्टक के शब्द हमारे हैं।]
दूसरे स्थान पर वे लिखते हैं:––
"भारत के सुख-शान्ति के दिन गये। किसी समय में उसके पास जो ऐश्वर्य था, उसका एक बड़ा भाग इँग्लेड ने हड़प कर लिया है। एक कठोर कुशासन में पड़कर उसकी शक्तियों का नाश हो गया है। थोड़े से व्यक्तियों के लाभ के लिए लाखो मानवों के सुखों का बलिदान कर दिया गया है[२]।"
प्रसिद्ध अँगरेज़ शासक जोन सल्लिवन ने, जिसने सन् १८०४ से १८४३ ई॰ तक भारत-सरकार की नौकरी की थी, १८५३ ईसवी में ईस्ट इंडिया