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भारतवर्ष––'दरिद्रता का घर'

ब्रिटिश उपनिवेशों और ब्रिटिश-रक्षित-राज्यों के एक इतिहासकार श्रीयुत मान्टगोमरी मार्टिन ने १८३८ ईसवी में लिखा था:––

"सम्पत्ति के इतने अधिक और क्रम-बद्ध विकास से इँगलैंड भी शीघ्र दरिद्र हो जा सकता है। तब भारतवर्ष पर इसका कितना भयङ्कर प्रभाव पड़ता होगा, जहाँ एक मज़दूर की दिन भर की मजदूरी केवल दो या तीन पेंस होती है[१]।"

भारतवर्ष के इतिहासकार प्रोफेसर एच॰ एच॰ विलसन सम्पत्ति के वार्षिक विकास के सम्बन्ध में लिखते हैं:––

"इस सम्पत्ति के इँगलैंड चले जाने का अर्थ है भारतवर्ष की पूँजी का बेकार हो जाना, जिसका कि कोई बदला भी नहीं दिया जाता। विकास देश को दरिद्र कर देनेवाला है क्योंकि इसकी किसी प्रकार पूर्ति नहीं की जाती। यह राष्ट्रीय व्यवसाय की नसों के रक्त को इस प्रकार चूस लेनेवाला है कि पश्चात् को किसी उपचार से उसकी रक्षा नहीं हो सकती।"

श्रीयुत ए॰ जे॰ विलसन ने 'फोर्ट नाइटली पत्रिका' की मार्च १८८४ की संख्या में प्रकाशित एक लेख में लिखा था:––

"किसी न किसी रूप में हम उस दुखी देश (भारत) से प्रतिवर्ष पूरे ३,००,००,००० पौंड खींच लेते हैं; और वहाँ के निवासियों की प्राय का औसत केवल ५ पौंड वार्षिक है या कहीं कहीं इससे भी कम। इसलिए भारत से जो हमें प्राप्त होता है वह ६० लाख से अधिक कुटुम्बों की या ३ करोड़ व्यक्तियों की सम्पूर्ण कमाई का धन होता है। इसका अर्थ यह है कि भारतवर्ष की सम्पूर्ण खुराक का दसवाँ अंश प्रतिवर्ष उनके लिए बेकार घर दिया जाता है।"

महान् अँगरेज़ राजनीतिज्ञ लार्ड सैलिसबरी ने १८७५ ईसवी में

भारतवर्ष के सम्बन्ध में कहा था कि उसकी 'कर की आय का एक बड़ा भाग बाहर चला जाता है और बदले में उसे कुछ नहीं मिलता।'


  1. पूर्व भारत का इतिहास इत्यादि; भाग २, पृष्ठ १२। दत्त लिखित "आरम्भिक ब्रिटिश शासन" भी देखिए, पृष्ठ ६०९।
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