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दुखी भारत

इन बातों का सम्बन्ध एबे के व्यक्तिगत जीवन की कथा से ही नहीं बरन उसकी पुस्तक की कथा से भी वैसा ही है। मैं श्रीयुत नाटराजन के शब्दों में ही उसे पाठकों के सम्मुख उपस्थित करता हूँ :—

"एबे डुबाइस के समान द्वेष-दर्शक ने भी यह नम्रता के साथ स्वीकार किया है कि कम से कम जन-समूह में हिन्दू स्त्रियों के साथ बड़ा ही सस्कार- पूर्ण बर्ताव किया जाता था। उसके ग्रन्थ के प्रथम अनुवाद में जिसे १८१७ ई० में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने प्रकाशित किया था, निम्न लिखित वर्णन मिलता है :—

'इसमें सन्देह नहीं कि घर के भीतर हिन्दू स्त्रियाँ बहुत सताई जाती हैं तथापि यह मानना पड़ेगा कि जन-समूह में उनका अत्यन्त आदर होता है। निस्सन्देह उनका आदर छेड़छाड़ और मजाक-पूर्ण नहीं होता जैसा कि हम लोगों में होता है और जो हमारे स्त्री-पुरुषों के लिए लज्जा की बात है। इसके अतिरिक्त उन्हें जन-समूह में किसी प्रकार के अपमान का भय नहीं रहता। कोई स्त्री जहाँ चाहे जा सकती है। वह आम जगहों में घूम सकती है (क्या वहाँ भी जहाँ गोरों की बस्ती अधिक है और देश में लुच्चों की संख्या अधिक होते हुए भी उसे उनसे डरने का कोई कारण नहीं रहता। जो आदमी रास्ते में या कहीं किसी स्त्री पर निगाह डालता है उसे सब एक-स्वर से गुंडा और अत्यन्त नीच कुल से उत्पन्न हुआ कहते हैं*[१]

"संशोधित संस्करण में जिससे स्वर्गीय मिस्टर ब्यूकैंप ने १८९७ ई० में मौजूदा अनुवाद तैयार किया है और तीसरे संस्करण में जिससे मिस मेयो अपने प्रमाण देती हैं तत्सामयिक योरपीय आचरण पर किये गये कटाक्ष बड़ी सावधानी के साथ पाने से रोक दिये गये हैं। और उस अंश को नीचे लिखे-प्रकार फिर से ढाला गया है :—

'पर यदि घर के भीतर स्त्रियों का बहुत कम सत्कार होता है तो किसी हद तक उसकी पूर्ति उन्हें जन-समूह में मिले आदर से हो जाती है। यह सच है कि उन्हें वह शुष्क आदरभाव नहीं मिलता जिसे हम नम्रता-पूर्ण सत्कार कहते हैं पर तब भी, दूसरी ओर वे अपमान के खतरे से बची रहती हैं। हिन्दू-स्त्री कहीं भी अकेली जा सकती है। अत्यन्त भीड़ भाड़ के स्थानों में भी । और उसे काहिल गुण्डों की दिल्लगी और बेहूदा कटाक्षों से डरने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं रहती। यह मुझे एक ऐसे देश के लिए जिसके


  1. * डुबोइस की पुस्तक, १८१७ ई० की छपी, पृष्ठ, २२०