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दुखी भारत


था तब भी भारतीय रेलों की सामग्री इंगलैंड से ही खरीदी जाती थी। रिट्रेन्चमेंट कमेटी लिखती है*[१]:-

"हाई कमिश्नर ने हमारा ध्यान इस बात की ओर आकर्षित किया है कि उसके विरोध करने पर भी दलाल लोग प्रायः किसी माल बनानेवाले या बेचनेवाले का ही माल उसके यहाँ आने देते हैं और इस प्रकार उसे इच्छानुसार माल लेने का अवसर नहीं देते। इससे यह स्पष्ट है कि उसे आवश्यकता से अधिक मूल्य देना पड़ जाता होगा। हाई कमिश्नर ने हमें ऐसे कई एक उदाहरण बतलाये है जहाँ ऐसी रुकावट के कारण केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकार के बहुत रुपये नष्ट हुए हैं। इसी प्रकार उन दलालों से भी हानि पहुँचती है जो किसी विशेष दूकान के प्रतिनिधियों से कुछ गुप्तरूप से तय कर लेते हैं। ऐसे व्यवहारों को कम करने की व्यवस्था होनी चाहिए। हम सिफ़ारिश करते हैं कि उनको पूर्णरूप से बन्द कर देने के लिए कानून बन जाना चाहिए। दलालों और माल बेचनेवालों में किसी प्रकार के गुप्त पत्र-व्यवहार की भी आज्ञा न होनी चाहिए।"

जो लोग अफसरों की नियमबद्ध और गम्भीर भाषा से परिचित हैं उन्हें यह एक कड़ी आलोचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं प्रतीत होगा। इस पत्र की भाषा से जितना अनुमान किया जा सकता है उससे कहीं अधिक भयङ्कर उन लोगों की काररवाइयाँ होंगी। अब भी प्रतिवर्ष भारतीय व्यापार के संरक्षकों या प्रतिनिधियों को सरकार के सम्बन्धित विभागों का ध्यान उस अन्तर की ओर आकर्षित करना पड़ता है जो भेजे गये माल और वास्तव में आर्डर दिये गये माल में होता है। इस सम्बन्ध में सरकार की ओर से जो उत्तर दिये जाते हैं वे प्रायः विषय को ही उड़ा जाते हैं।

प्रारम्भ के 'सस्ते ऋण' के रूप में रेलों की आर्थिक अवस्था का जिन लोगों ने वर्णन किया है उनमें ए॰ जे॰ विलसन, डिग्बी, नौरोजी, गोखले और वाचा का नाम विशेष उल्लेखनीय है। विलसन ने इसे अपनी 'गिरवी साम्राज्य' और डिग्बी ने अपनी 'उन्नतशील ब्रिटिश भारत' नामक पुस्तक में लिखा था। नौरोजी, गोखले, वाचा तथा अन्य लोगों ने

  1. * भाग ४, पैराग्राफ ५२।