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भारत के धन का अपव्यय-समाप्त

। योरपियन व्यापारियों के हितों पर विशेष ध्यान रखा जाता है पर भारतीय जनता के हितों पर कभी भी ध्यान नहीं दिया जाता। यदि उनका कभी कोई विचार किया भी जाता है तो योरपियनों के पश्चात्। सरकार कर-दाताओं की सम्मति का बिना कुछ विचार किये और बिना यह सोचे कि परिणाम क्या होगा योरपियन व्यापारियों के ज़रा सा सिर हिलाने पर भी उन्हें रेलों में सुविधाएँ देने के लिए लाखों रुपये पानी की भांति बहा देती है। भारतीय रेलवे शासन में सबसे बड़े कलङ्क की बात यही है कि यह इस देश में स्थायी रूप से रहनेवाली जनता की परवाह नहीं करता और सामयिक योरपियन व्यापारियों की शिकायतों को दर करने का सदैव प्रयत्न करता रहता है। कोई रेल-पथ-निर्माण-कर्ता व्यक्तिगत रूप से इतना भारी धन नहीं स्वाहा कर सकता और कोई निजी जायदाद रखनेवाली संस्था, वह कितनी ही धनी और प्रभावशालिनी क्यों न हो, सभ्य जगत् के किसी भाग में इस प्रकार १५ से १६ करोड़ तक प्रतिवर्ष ऋण लेकर बिना रोक केवल अफसरों की रोक को छोड़कर जिसे रोक कह ही नहीं सकते–व्यय कर देने की नीति को सहन नहीं कर सकती।"

रेलों का व्यय घटाने के सम्बन्ध में इंचकेप कमेटी की निम्नलिखित सम्मति भी पढ़ने योग्य है:-

"हम लोगों की यह सम्मति है कि अब देश रेलों की आर्थिक सहायता नहीं कर सकता। और यह कि रेलों का व्यय कम करने की कार्रवाई की जानी चाहिए जिससे कि वे अपना व्यय अपनी आय के भीतर ही करें और यथेष्ट मात्रा में उस बड़े व्यय को भी अदा करने लगे जो सरकार को उनके लिए उठाना पड़ा है। हम लोगों को यह आशा है कि यदि परिमितव्ययता से काम किया जाय तो भारतीय रेलों की इतनी आय बढ़ सकती है कि उन पर जो पूंजी लगी है उसका ५ १/२ प्रतिशतक वसूल होने लगे। गत महायुद्ध से पूर्व ३ वर्षों तक सरकार को रेलों से जो धन वापस मिला उसका औसत ५ प्रतिशत था। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि और भी बड़ी बड़ी रकमें ६ प्रतिशत या अधिक पर ली जा रही हैं हमारा ग्रह ख़याल है कि ५ १/२ प्रतिशत वसूल करना अधिक नहीं कहा जा सकता।"

'सस्ती' पूँजी एक दूसरे प्रकार से भी दी गई थी। यहाँ हम उस बात का उल्लेख कर रहे हैं कि जब इँगलेंड 'भारत का सबसे सस्ता बाज़ार' नहीं