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दुखी भारत


कार करते हैं। इसमें आश्चर्य्य नहीं कि महात्मा गान्धी भी उसकी शैली की आलोचना करते समय उत्तेजित हो उठे और लिखा कि:—

"परन्तु हर एक वस्तु को जो भारतीय हो दुर्भाव से देखने की शीघ्रता में उसने मेरे लेखों के साथ स्वतन्त्रता ही नहीं ली बरन उन बातों का, जिनका सम्बन्ध उसने या दूसरे लेखकों ने मेरे साथ जोड़ा है, मुझसे पूछ कर निर्णय कर लेने की भी आवश्यकता नहीं समझी। हम लोगों को भारतवर्ष में जज और मजिस्ट्रेट से जो बेाध होता है वास्तव में उसने वही रूप धारण किया है। वह दोनों है। वादी भी और जज भी।"

महात्मा गान्धी जब जेल में थे और उनका फोड़ा चीरा गया था उस समय का मिस मेयो ने जो वर्णन किया है ज़रा उसको भी देख लीजिए। इन वर्टेड कामाओं पर भी ध्यान देते जाइएगा।

"उस समय वे जेलख़ाने में थे। इसलिए एक अँगरेज़ सिविल सर्जन सीधा उनके पास पहुँचा और जैसा कि उस घटना की रिपोर्ट से मालूम होता है, बोला—'मिस्टर गान्धी मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आपके पेट के भीतर फोड़ा हो गया है। यदि आप मेरी चिकित्सा में होते तो मैं तुरन्त इसे चीर देता। पर कदाचित् आप अपने आयुर्वेदिक वैद्य को बुलाना अधिक पसन्द करेंगे।'

"मिस्टर गान्धी का विचार कुछ और ही प्रकार का मालूम हुआ।"

"डाक्टर ने फिर कहा—'मैं इस फोड़े को चीरना पसन्द न करूँगा क्योंकि यदि इसका विपरीत परिणाम हुआ तो आप के सब मित्र हम लोगों को, जिनका कि कर्तव्य आपकी संभाल करना है, द्वेष की भावना से यह काम करने का अपराधी ठहरावेंगे।"

"मिस्टर गान्धी ने आग्रह किया—'मैं अभी अपने मित्रों को बुला कर कहूंगा कि आप मेरे निवेदन करने पर ऐसा कर रहे हैं।'

"इस प्रकार मिस्टर गान्धी स्वेच्छापूर्वक 'पाप बढ़ानेवाली संस्था' में गये। और 'सबसे बुरों' में से एक ने—भारतीय मेडिकल सर्विस के एक अफसर ने—उनका फोड़ा चीरा और जब तक अच्छे नहीं हो गये एक अंगरेज़ बहिन ने बड़ी सावधानी से उनकी सेवा की। सुना जाता है उसे उन्होंने अन्त में 'एक काम का व्यक्ति' कहकर स्मरण किया था।"