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'मदर इंडिया' पर कुछ सम्मतियाँ

उनकी सभ्यता में जो अच्छी बातें हैं उनसे स्नेह रखते हैं तो आप उनकी कड़ी से कड़ी आलोचना कर सकते हैं और उस दशा में वे आपकी बातें सुनेगे भी। सरकारी कर्मचारी, भारतीय कालिजों के प्रोफ़ेसर और ईसाई-धर्म-प्रचारक सब इस बात को जानते हैं। परन्तु यदि आप द्वेष के साथ उनकी आलोचना करेंगे तो आपकी बात कोई नहीं सुनेगा। स्त्रियों के प्रति व्यवहार के सम्बन्ध में मिस मेयो ने जो बातें लिखी हैं उनके अतिरिक्त उसकी मौलिकता और कहीं नहीं प्रतीत होती। उस भारतीय नरेश का यह कहना कि यदि अँगरेज़ भारत को छोड़ कर चले जायेंगे तो उसके तीन ही मास के भीतर बङ्गाल में 'न तो एक रुपया शेष रह जायगा न कोई कुमारी बचेगी' सम्भवतः सच हो सकता है। परन्तु जिस ढङ्ग से यह बात अँगरेज़ पाठकों के सम्मुख रक्खी गई है उसको देखते हुए मैं यह कह सकता हूँ कि इसका उलटा प्रभाव हुए बिना नहीं रह सकता। वह लिखती है––'यहाँ एक ऐसे व्यक्ति के मुँह से निकली बात उपस्थित की जा रही है जिसकी सत्यता पर मेरी समझ में किसी को सन्देह नहीं हो सकता।' अच्छा, अब मैं इस पर सन्देह करता हूँ; यद्यपि मुझे यह ज्ञात कि उनके 'भारत के सम्बन्ध में विशेष अनुभव रखनेवाले अमरीकन संवाददाता' ने इसे एक बड़े आकर्षक, सुशिक्षित और शक्तिमान् मरहठा-नरेश से भेंट करने पर सुना था। यह कथा गत बीस वर्षों से प्रत्येक जहाज़ पर, जो इँगलैंड से भारत को और भारत से इँगलैंड को यात्री ले जाता है, कही जाती है। अठारह महीने हुए मुझसे पार्लियामेंट के एक सदस्य ने बतलाया था कि यह बात एक राजपूत––सर प्रतापसिंह––ने कही थी। मिस मेयो महात्मा गान्धी के प्रभाव और निर्भयता के विरुद्ध कुछ नहीं कहती। वह बाल-विवाह, अस्पृश्यता तथा अन्य कुरीतियों के सम्बन्ध में उनकी कड़ी आलोचनाओं के खूब उद्धरण देती है, तो भी उनका मज़ाक उड़ाती है क्योंकि वे रेलों और कल-कारख़ानों को बुरा समझते भी उनका उपयोग करते हैं। इसके पश्चात्, क्या केवल भारतवर्ष ही ऐसा देश है जहाँ के विद्यार्थी विश्वविद्यालय की शिक्षा का व्यापारिक मूल्य लगाते हैं? क्या हरवर्ड, वेल और आक्सफोर्ड के विश्वविद्यालय में ऐसे विद्यार्थी नहीं हैं जो अपनी शिक्षा के पुरस्कारस्वरूप अच्छी नौकरी पा जाने के लिए चिन्तित नहीं रहते? मिस मेयो में दूसरी जातियों की भावना का अनुभव करने की इतनी भी शक्ति नहीं है, और उनके साथ वह इतनी भी सहानुभूति नहीं दिखा सकती कि वह समझे कि कदाचित् कुछ भारतीयों ने कहीं आत्मसम्मान के भाव से ही प्रेरित होकर प्रिंस आफ़ वेल्स की यात्रा पर उत्साह न प्रकट किया हो––क्योंकि चाहे जो हो, प्रिंस आफ़ वेल्स का सम्बन्ध तो उनके विजेताओं के ही रक्त से है। वह उस यात्रा का वर्णन ऐसी उन्माद-मयी भाषा में करती है कि किसी अँगरेज़ी जनता