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मिस मेयो के तर्क


इसके उत्तर में वे चिल्लाते हैं कि—'हमारा आध्यात्मिक अङ्ग घायल हो गया है और उसमें से रक्तस्राव हो रहा है। अभिमानी विदेशी की छाया ने हमारे सूर्य को ढक लिया है इससे हमारी आत्मा दूषित हो गई है। इसके अतिरिक्त कि राजनीति के मञ्च पर खड़े होकर हम अपने कठोर शासक की इतनी निन्दा करें कि वह भग जाय और कुछ नहीं किया जा सकता। कहीं कुछ नहीं। जब ब्रिटिश लोग यहाँ से चले जायँ, तब—उससे पहले नहीं—हम स्वाधीन पुरुष, स्वतन्त्रता की हवा में सांस लेते हुए अपनी प्यारी भारत-माता की साधारण आवश्यकताओं पर ध्यान दे सकते हैं।"

अब मिस मेयो का व्यङ्गपूर्ण उत्तर देखिए:—

भारत में ब्रिटिश शासन का चाहे वह भला हो, चाहे बुरा, चाहे उदासीन, ऊपर लिखी गई अवस्थाओ से कोई सम्बन्ध नहीं है। शिथिलता, असमर्थता, स्वयं कुछ न सोचने की कमी, मौलिकता, स्थिर शक्ति, और स्थायी राजभक्ति का अभाव, उत्साह-हीनता और स्वयं जीवन-बल का ह्रास आदि अवगुण भारतवासियों में नये नहीं हैं। इनका सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल के इतिहास से चला आ रहा है। ये सब भारतवासियों की इस दशा को इसी प्रकार बनाये रहेंगे और दिनों दिन बढ़ते जायँगे जब तक कि भारतवासी इनके कारणों को स्वीकार न कर लेंगे और स्वयं अपने हाथों से इन्हें निर्मूल न कर देंगे। इसमें सन्देह नहीं कि भारतवासियों की आत्मा और शरीर दोनों को दासता की ज़ञ्जीर ने जकड़ रक्खा है। पर वे स्वयं अपनी ज़ञ्जीरों को चिपटाये हुए हैं। जो उन्हे तोड़ने का प्रयत्न करे उसे मारने दौड़ते हैं। उन्हें कोई स्वतन्त्र नहीं कर सकता। उन्हीं के हृदय में कोई नवीन उत्साह पैदा हो तभी वे स्वतन्त्र हो सकते हैं। अपने भूत, वर्तमान और भविष्य के लिए बाहरी लोगों को दोषी ठहराकर वे अपने आपको धोखा दे रहे हैं और अपनी मुक्ति के दिन को दूर ठेल रहे हैं।

"बारह वर्ष की एक बालिका को लीजिए। हाड़ और रक्त में एक दयनीय शरीर का वह नमूना मात्र है। वह निरक्षर है। मूर्ख है। स्वास्थ्यपूर्ण जीवन बनाने के लिए उसे किसी प्रकार की शिक्षा भी नहीं मिली। जितनी जल्दी हो सके उस पर मातृत्व का भार लाद दीजिए। उसके दुर्बल शिशु को अत्यन्त विषयवासना के बीच में पालिए जिससे उसकी नन्हीं शक्ति दिनों दिन घटती जाय। उसे खेल-कूद से दूर रखिए। उसका स्वभाव ऐसा बना दीजिए कि वह ३० वर्ष की अवस्था तक पहुँचते पहुँचते बिलकुल निकम्मा वृद्ध बन जाय। और तब क्या आप पूछेंगे कि उसके पुरुषत्व को किसने खोखला कर दिया?