(वर्तमान संयुक्त प्रान्त) की भांति स्त्री-शिक्षा में पञ्जाब से बहुत पीछे थी तो भी १८४५ ई॰ में वहां लोगों के अपने निजी घरों पर बालिकाओं की अनेक पाठशालाएँ थीं।"
१८८२ ई॰ में शिक्षा-सम्बन्धी जांच कमीशन के सामने डाक्टर लीटनर ने जो गवाही दी थी उसके निम्न लिखित अंश से स्त्री-शिक्षा की प्राचीन प्रणाली का सविस्तर वर्णन मिलता है[१]:—
"प्रश्न ४१—क्या इस प्रान्त में बालिकाओं की शिक्षा लिए कोई प्राचीन पद्धति है जिससे आप परिचित हैं? यदि है तो उसका स्वरूप क्या है?"
"उत्तर ४१—हाँ, उदाहरण के लिए मौलवियों और भाइयों की पत्नियाँ अपने पतियों से शिक्षा ग्रहण करती हैं और अपने बालकों को एक निश्चित आयु तक पढ़ने और धार्मिक कर्तव्यों की शिक्षा देती हैं। प्रतिष्ठित मुसलमानों की पत्नियां भी प्रायः पढ़ और लिख सकती हैं। (यद्यपि लिखना सीखने के लिए उन्हें इतना प्रोत्साहन नहीं मिलता जितना पढ़ना सीखने के लिए। इसका कारण बताने की यहाँ आवश्यकता नहीं है।) कुछ स्त्रियां फ़ारसी से बड़ी विद्वान होती हैं। एक प्रसिद्ध मुसलमान परिवार से मैं परिचित हूँ और मुझे मालूम हुआ है कि उसमें कई एक स्त्रियाँ उच्च कोटि की कवि हैं। मुसलमानों और सिक्खों में स्त्रियों का स्थान जैसा अनुमान किया जाता है उससे बहुत ऊँचा है। और यदि उनके गार्हस्थ्य जीवन के पर्दे में व्यतीत होने में बाधा न पहुँचे तो उनकी शिक्षा का विरोध किसी को नहीं हो सकता। देशी राज्यों में भी पढ़ी-लिखी स्त्रियों का यही औसत है यद्यपि वहाँ स्त्री-शिक्षा का इतना ढोल नहीं पीटा गया जितना ब्रिटिश राज्य में। ब्रिटिश राज्य में भी मुझे इस बात में सन्देह नहीं कि बहुत सी प्रतिष्ठित स्त्रियाँ लिख-पढ़ सकती हैं....। चिनाव और अटक के बीच के जिलों में सिक्खों की स्त्रियों के लिए देशी स्कूल सदैव से चले आ रहे हैं। पुरोहितों की स्त्रियाँ अपनी समाज की अन्य स्त्रियों के यहाँ जायें और उन्हें पढ़ावें यह तो उचित और ठीक कहा जाता है पर बालिकाओं का विशेषकर विवाह के योग्य होने पर पाठशाला जाने के लिए बाज़ार से निकलना, जहां तक मैं समझता हूँ, वर्जित है। धार्मिक ग्रन्थों का खूब पढ़ना, सीना पिरोना, गोटा पट्टा करना, गृहस्थी के लिए अत्यन्त सावधानी के साथ भोजन पकाना, सफ़ाई से रहना, दुःख में कोमल व्यवहार
- ↑ वही पुस्तक, पृष्ठ १०३-१०४