पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/११

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दुर्गेशनन्दिनी।



दवा ने भीतर जातेही अपना प्रभाव दिखाया, शरीर का रङ्ग पलटने लगा स्वेतता जाती रही, रक्त का संचार होने लगा, हाथ की मुट्ठी खुल गई और आंख भी खुलने लगी। हकीम ने फिर नाड़ी देखी और किंचितकाल के अनन्तर हर्षयुत बोला 'अब कुछ भय नहीं अब काल टल गया।'

उसमान ने पूछा 'ज्वर उतर गया?'

भिषक ने कहा 'हां।'

आयेशा और उसमान दोनों इस बात को सुन कर प्रसन्न हुए?

भिषक ने कहा 'अब किसी बात की चिंता नहीं है मैं जाता हूं इस औषध को आधी रात तक देते जाना' और आप चला गया उसमान भी अपने घर चला गया केवल आयेशा पलङ्ग पर बैठी जगतसिंह की सेवा कर रही थी।

आधी रात के किंचित् पूर्व राजकुमार ने नेत्र खोला और आयेशा और उनकी चार आंखें हुईं। उस समय आयेशा को राजकुमार की चेष्टा देख बोध हुआ कि वे किसी वस्तु का स्मरण कर रहे हैं परन्तु श्रम निष्फल होता है। आयेशा की ओर किंचित्काल देख कर बोले 'मैं कहां हूं?' दो दिन में यही शब्द पहिले पहिल उनके मुंह से निकला।

आयेशा ने कहा 'कतलूखां के दुर्ग में'।

राजकुमार फिर कुछ स्मरण करने लगे और बोले 'मैं यहां कैसे आया?

पहिले आयेशा चुप हो रही फिर बोली ' आए पीड़ित जो हैं।' राजकुमार ने लक्षण समझ सिर को हिला कर कहा 'नहीं नहीं बन्दी हूं।' और चहरे का रङ्ग पलट गया।

आयेशा ने कुछ उत्तर न दिया।