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दुर्गेशनन्दिनी।


चौथा परिच्छेद।
घूंघटवाली।

दुर्ग जय करने के दूसरे दिन पहर दिन चढ़े कतलूखां का 'दरबार' हुआ। पारिषद लोग श्रेणीबद्ध दोनों ओर खड़े थे और सामने शतश: मनुष्य चुपचाप देख रहे थे। आज बीरेन्द्र सिंह का विचार होनेवाला है।

कई सिपाही अस्त्र बांधे बीरेन्द्रसिंह के हाथ में हथकड़ी और पैर मैं बेड़ी डाले उपस्थित हुए। यद्यपि उनका शरीर रक्त वर्ण हो रहा था पर मुंह पर भय का कोई चिन्ह नहीं था। आंखों से आग बरसती थी नाक का सिरा फरफराता था और दांत ओठों को खाये जाते थे। बीरेन्द्रसिंह को देख कतलू खां ने पूछा 'बीरेन्द्रसिंह! आज मैं तुम्हारे अपराध का विचार करने बैठा हूं बताओ तुमने हमसे बिरोध क्यों किया?'

बीरेन्द्रसिंह ने क्रोध करके कहा 'पहिले तुम यह तो बतलाओ कि हम ने क्या विरोध किया'।

एक पारिषद ने कहा 'विनीत भाव से बात करो'।

कतलू खां ने कहा 'तुमने क्यों हमारी आज्ञा के अनुसार हमको द्रव्य और सेना नहीं भेजी?'

बीरेन्द्रसिंह ने नि:शंक कहा 'तुम राजद्रोही लुटेरों को हम क्यों द्रव्य दें? और सेना दें?'

कतलू खां का कलेवर कोप से कांपने लगा किन्तु रोष को रोक कर बोला 'तुम ने हमारे अधिकार में रह कर मोगलियों से क्यों मेल किया?'

बीरेन्द्रसिंह ने कहा 'तुम्हारा अधिकार कहां है?'

कतलू खां को और कोप हुआ 'सुनरे दुष्ट जैसा तूने किया