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पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/२५

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दुर्गेशनन्दिनी।



वस्तु चाहती हो तो मुझ से कहो मैं दिल्ली जाता हूं वहां से भेज दूंगा यदि द्रव्य चाहिये तो वह भी भेज सक्ता हूँ।

माता ने कहा 'मुझको धन नहीं चाहिये। मेरी मजूरी मुझको अच्छी है। किन्तु यदि आपकी पहुंच जहाँपनाह तक हो तो ––'

बात पूरी नहीं होने पाई कि पठान ने कहा 'हां ठीक है मैं राजदरबार में तुम्हारा काम कर सक्ता हूं'।

माता ने कहा 'तो वहां इस कन्या के बाप का पता लगा कर मुझको लिख भेजियेगा'।

पठान ने हुंकारी भरी और एक अशरफी निकाल कर माता के हाथ धरी और उसने ले लिया। अपने कहने के अनुसार उसने वहां जाकर पिता की खोज में बहुतेरे राजपूत भेजे पर कहीं पता न लगा।

चौदह वर्ष के अनन्तर राजपूतों ने लिखा कि पिता दिल्ली में हैं शशिशेखर नाम छोड़ कर अभिराम स्वामि नाम रक्खा है। जब यह सम्बाद आया माता मेरी मर चुकी थी।

यह सम्बाद सुन कर फिर मुझ से काशी में न रहा गया। कुल भर में मेरे केवल पिता जीते थे और सो भी दिल्ली में, तो मैं काशी में क्या करती। अतएव मैं अकेली पिता के पास चली गई। पिता मुझको देखकर पहिले रूखे हुए परन्तु जब मैं बहुत रोई गाई तब मुझको दासी हो के रहने की आज्ञा दी और माहरू नाम छोड़ विमला नाम रक्खा। मैं पिता के घर में रह कर रात दिन उनकी सेवा में लगी रहती थी और जिस प्रकार वह प्रसन्न रहते वही काम करती थी। पिता भी मेरी सेवा देख कर स्नेह करने लगे।