सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२७
द्वितीय खण्ड।



'आप अपनी ज्येष्ठ कन्या का स्मरण करें।' पर उन्होंने मेरी बात न सुनी जान पड़ता था कि महाराज की और उनकी एक मति थी। वरन रोष करके बोले 'पापिन! तू ने लज्जा संकोच सब छोड़ दिया' उर्मिला देवी ने मेरी रक्षा के निमित्त महाराज से बहुत कुछ कहा। महाराज बोले 'मैं इस चोर को छोड़ दूंगा यदि वह विमला से विवाह करले।'

मैं महाराज की मनोगति समझ चुप रही किन्तु प्राणेश्वर ने जब यह बात सुनी कहने लगे 'मैं बन्दी रहूंगा प्राणदण्ड भोगूंगा परन्तु शूद्री कन्या का अंगीकार कदापि न करूंगा। आप हिन्दू होकर ऐसा बात कहते हैं।'

महाराज ने कहा 'जब मैंने अपनी बहिन शाहजादा सलीम के सङ्ग ब्याह दी तो तुमको ब्राह्मण की कन्या ब्याहने कहता हूँ इसमें क्या आश्चर्य?'

पर उनके मन में न समाई। उन्होंने कहा 'महाराज जो होना था सो हो चुका अब आप कृपा करके मुझको बन्धन मुक्त कीजिये मैं अब विमला का नाम भी न लूंगा।'

महाराज ने कहा 'ऐसे तो तुम्हारे अपराध का प्रायश्चित नहीं होता। तुम विमला को त्याग दोगे तो दूसरा उसको कलंकिनी समझ कर ग्रहण नहीं करेगा।

अन्त को जब उनसे कारागार की कठिनता न सही गयी तो कुछ २ ढुले और बोले 'विमला यदि हमारे घर में दासी होकर रहे और इस विवाह के विषय में कभी किसी से कुछ न कहे तो मैं उससे विवाह करलूं नहीं तो न करूंगा।'

लगी बुरी होती है मैंने वही स्वीकार किया। मुझको धन सम्पत्ति और मान की लालसा न थी मैं तो केवल प्रीतम की अभिलाषी थी। पिता और महाराज की भी सम्मति हुई और मैं