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पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/३१

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दुर्गेशनन्दिनी।


दासी का वेष धारण करके अपने भर्ता के गृह गई।

उन्होंने मुझको अपनी इच्छा के विरुद्ध पेंच में पड़ कर ग्रहण किया था, अतएव मुझको बैरी की भांति समझते थे। पूर्वकालीन प्रेम सब मिट्टी में मिल गया और महाराज मानसिंह कृत अपमान का टोकारा देकर मुझको निन्दित किया करते थे। मैं उसी में मगन थी। कुछ दिन के अनन्तर फिर मेरा सौभाग्य चमका और प्राणेश्वर मुझको चाहने लगे किंतु महाराज की ओर उनका वैसाही ध्यान रहा। विधना की करतूति! नहीं तो क्यों इस दशा को पहुंचते।

मैं तो अपना वृत्तान्त कह चुकी। बहुत लोग जानते होंगे कि मैं अपना कुल धर्म्म परित्याग कर मान्दारणगढ़ के स्वामी के पास रहती थी इसलिये मैंने आपको लिख भेजा है कि अब मैं मर जाऊं और लोग मुझको कलंक लगावें उस समय आप मेरी सहायता कीजियेगा।

इस पत्र में मैंने केवल अपना हाल लिखा है, जिसके संवाद जानने की आपको अनेक दिन से लालसा लग रही है उसका इसमें कुछ परिलेख नहीं है, आप उस नाम को अपने मन से भूल जाइये। तिलोत्तमा का अब ध्यान छोड़ दीजिये।

उसमान ने पत्र पढ़ कर कहा "माता तुम ने मेरी प्राण रक्षा की है अब मैं उसका प्रतिउपकार करूँगा"।

विमला ने ठंढी सांस लेकर कहा 'हमारा क्या उपकार आप कीजियेगा? और उपकार'—

उसमान ने कहा "मैं वही करूँगा।"

बिमला का बदन चमकने लगा और बोली "उसमान तुम क्या कहते हो? इस दग्धहृदय को अब ललचाते हो?"

उसमान ने हाथ से एक अँगूठी उतार कर कहा, यह अँगूठी