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पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/४४

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द्वितीय खण्ड।



उसमान ने स्थिर चित्त होकर‌ कहा राजपुत्र! आप इतना घबराते क्यों है दुख बुलाने से नहीं आता आप‌ से आप आता है।

राजपुत्र ने गर्वित बचन से कहा 'आप लोगों की इस कुसुम शय्या की अपेक्षा राजपूत शिला शय्या को अमङ्गल नहीं समझते।

उसमान ने कहा 'और यदि अमङ्गलही होता तो क्या हानि थी'।

राजपुत्र ने उसमान की ओर तीखी दृष्टि करके कहा 'यदि कतलूखां को उचित दण्ड न दिया तो मरनेही में क्या हानि है'?

उसमान ने कहा 'युवराज! पठान लोग जो कहते हैं वहीं करते हैं।'

युवराज ने हंस कर कहा 'सेनापति तुम यदि‌‌ हमको धमकाने आये हो तो यह श्रम तुम्हारा निष्फल है।'

उसमान ने कहा 'राजपुत्र हमलोग आपुस की‌ परम्परा को भली भांति जानते हैं व्यर्थ वाक्यव्यय से कुछ प्रयोजन नहीं! मैं आपके पास एक विशेष कार्य के निमित्त आया हूँ।'

जगतसिंह को आश्चर्य हुआ और बोले 'क्या?'

उसमान ने कहा 'मैं जो आपसे प्रस्तावना करता हूँ‌ वह कतलूखां के कहने से नहीं करता।'

ज॰। 'अच्छी बात है।'

उ॰। सुनिये! राजपूत और पठानों के युद्ध में दोनों पक्ष की हानि है।

राजपूत ने कहा 'पठानों का नाश तो युद्ध का मुख्य प्रयोजन है।'