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द्वितीय खण्ड।


गार में रहने की प्रार्थना तुम से की थी।

उ॰। राजकुमार! कतलूखां यदि आपको कारागारही में रखकर तृप्त हो तो बड़ी बात।

युवराज ने भौं टेढ़ी करके कहा 'वीरेन्द्रसिंह की दशा मेरी भी होगी, और क्रोध के मारे आँखैं लाल हो गयीं।

उसमान ने कहा 'मैं जाता हूँ। अपना काम म कर चुका कतलूखां की आज्ञा आपको दूसरे दूत द्वारा ज्ञात होगी।

थोड़ी देर के अनन्तर वह दूत आया। उसका वेष सैनिक पुरुष की भांति था, पर साधारण सिपाहियों से कछ बढ़कर बोध होता था। उसके सङ्ग और चार सिपाही थे। राजपुत्र ने पूछा! 'तुम क्यों आये?'

सैनिक ने कहा 'आप को दूसरी कोठरी में चलना होगा' 'मैं प्रस्तुत हूँ चलो' कहकर राजपुत्र दूतों के पीछे हो लिये।

 

बारहवां परिच्छेद।
अलौकिक आभरण।

महा उत्सव उपस्थित। आज कतलूखां का जन्मदिन है। दिन में सब लोग राग, रङ्ग, नृत्यगान भोजन पान, इत्यादि में नियुक्त थे और रात को इससे भी अधिक दुर्ग में दीपावली दान होने लगी, सैनिक, सिपाही, उमरा, नोकर, चाकर, धनी, रंक, मतवाले, नट, नर्तक, नायक, नायिका, बजनिया, मानमती, माली, गन्धी, तमोली, हलवायी, ठठेरे, कसरे इत्यादि से दुर्ग परिपूर्ण हो गया। जिधर देखो उधर दीपमाला, गाना बजाना इतर, पान, पुष्प, बाजी, वेश्या देख पड़ते थे। महल में इससे