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पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/४७

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दुर्गेशनन्दिनी।



ज॰। मैं कह जाऊं और फिर न आऊं, तो इसका निश्चय कैसे हो सकता है।

उसमान ने हंसकर कहा 'इस बात का निश्चय है। राजपूत लोग कहकर मुकरते नहीं यह सब लोग जानते हैं।'

राजपुत्र ने सन्तुष्ट होकर कहा 'मैं अंगीकार करता हूँ कि पिता से मिलकर अकेला दुर्ग को पलट आऊंगा'।

उ॰। और एक बात स्वीकार कीजिये तो हमारे ऊपर बड़ा अनुग्रह हो—कि महाराज के पास जाकर आप हमलोंगो की इच्छानुसार सन्धि सम्पादन कीजिये।

राजपुत्र ने कहा 'सेनापति महाशय मैं यह बात स्वीकार नहीं कर सकता दिल्ली के अधिकारी ने हमको पठानों को जय करने के निमित भेजा था, मैं पठानों को पराजित करूँगा सन्धि नहीं करूँगा। मैं चरचा भी न करूँगा।'

उसमान को सन्तोष और क्षोभ दोनों हुआ। बोले 'युवराज आपने राजपूत कुल योग्य उत्तर दिया पर विचार कर देखिये कि दूसरा और कोई आपके छूटने का उपाय नहीं है।'

ज॰। हमारे छूटने से दिल्लीश्वर को क्या? क्षत्रिय कुल में अनेक योधा हैं।

उसमान ने कातर होकर कहा 'राजकुमार! हमारा निवेदन सुनिये और इस हठ को छोड़ दीजिये।'

जा॰। क्यों?

उ॰। मैं आप से सत्य कहता हूँ कि नवाब साहेब ने आप को इतने आदर सत्कार से इसी आशा पर रक्खा है कि आप के द्वारा सन्धि का प्रबंध हो जायगा। यदि आपने मुँह मोड़ा तो अपनी हानि की।

ज॰। फिर मुझको भय देखाते हो। इसी लिये मैंने कार