पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५२
दुर्गेशनन्दिनी।



तिलोत्तमा ने उससे पूछा 'रात कितनी गई होगी?'

दासी ने कहा 'दोपहर।'

जब अपना काम करके दासी चली गई तिलोत्तमा अंगूठी लेकर चली पर मारे भय के हाथ पैर कांपते थे और मुँह भी सूखा जाता था, कभी चलती थी फिर खड़ी हो जाती थी, पैर आगे नहीं पड़ता था, किसी प्रकार महल के द्वार पर्यन्त गई देखा तो पहरे वाले सब खोजा हबशी उन्मत्त पड़े हैं, किसी ने उसको देखा नहीं किंतु तिलोत्तमा को यही वोध होता था कि सब हमको देख रहे हैं और मारे डर के सिमटी जाती थी। ज्यों त्यों करके द्वार के बाहर पहुँची, वहाँ एक सिपाही अपनी नौकरी पर खड़ा था। उसने तिलोत्तमा को देखकर कहा तुम्हारे पास अँगूठी है?

तिलोत्तमा ने डरते २ अँगूठी दिखाई। उसने उसको भली भांति उलट पुलट कर देखा और फिर उसी बनत की एक अपने पास से निकाल कर दिखाई और बोला "हमारे सङ्ग आओ डरो मत।"

तिलोत्तमा उसके साथ २ चली। अंतःपुर के पहरे वालों की जो दशा थी वही सब स्थान पर थी और विशेष कर आज की रात कुछ रोक टोक नहीं थी। वह प्रहरी तिलोत्तमा को लिये लिये अनेक द्वार घर, आंगन में फिरता २ दुर्ग के फाटक पर पहुँचा और खड़ा होकर पूछने लगा 'अब तुम कहाँ जाओगी? जहाँ कहो वहाँ तुमको पहुँचादें।'

बिमला ने जो कह दिया था वह तो तिलोत्तमा को भूल गया, पहिले जगतसिंह का ध्यान आया और मन में हुआ कि वहीं चलने को उससे कहें परंतु लज्जा ने कहने न दिया। प्रहरी ने फिर पूछा 'कहाँ चलोगी?'