पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५४
दुर्गेशनन्दिनी।



इतने में तिलोत्तमा को कुछ साहस हो आया और भीतर घुसी।

राजकुमार को देखतेही उसकी और भी रही सही सुध भूल गई और नीचे सिर करके खड़ी हो रही।

पहिले तो राजकुमार ने उसे चीन्हा नहीं मन में शंका करने लगे कि यह कौन स्त्री है और क्यों खड़ी है? चारपाई पर से उठे और द्वार के समीप आकर तिलोत्तमा को पहिचाना।

दोनों की आँखें चार हुईं फिर तिलोत्तमा ने सिर झुका लिया पर शरीर की गति से यह जान पड़ा कि राजकुमार के चरण पर गिरा चाहती है।

राजपुत्र पीछे हटकर खड़े हुए और बोले।

'क्या बीरेन्द्रसिंह की कन्या है?'

तिलोत्तमा को सांप ने डस लिया बीरेन्द्रसिंह की कन्या? यह पूछना कैसा? क्या जगतसिंह तिलोत्तमा का नाम भी भूल गए? दोनों कुछ काल चुप रहे। फिर राजपुत्र ने कहा 'यहाँ तुम्हारा क्या प्रयोजन है?' यह प्रश्न कैसा? तिलोत्तमा को घुमटा आने लगा और ऐसा मालूम होता था कि घर, द्वार, सेज, दीप सब धूम रहा है। चौकठ पर झुक कर खड़ी हो रही।

देर तक राजकुमार उत्तर पाने के अभिलाषी खड़े थे अंत को बोले—तुमको क्लेश होता है, फिर जाओ पुरानी बातों को भुलादो।'

तिलोत्तमा का भ्रम दूर हुआ और वह टूटे वृक्ष की भांति भूमि पर गिर पड़ी।