पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६८
दुर्गेशनन्दिनी।


वे सब फाटक छोड़ कर दौड़े और बिमला ने अपनी राह ली।

थोड़ी दूर जाकर उसने देखा कि एक पुरुष एक वृक्ष के नीचे खड़ा है। देखतेही उसने अभिराम स्वामी को पहिचाना! ज्यों उनके समीप पहुंची कि स्वामी जी बोले ' मैं तो घबरा गया था, दुर्ग में कोलाहल कैसे होता है ?'

विमला ने कहा - मैं तो अपना काम कर आई, अब यहां बहुत बात करने का अवकाश नहीं है, जलदी घर चलो फिर मैं सब बताऊंगी। तिलोत्तमा घर पहुंच गयी।'

अभिराम स्वामी ने कहा 'वह अभी आसमानी के संग जाती है आगे मिल जायगी।'

दोनों जल्दी २ चले और कुटी में पहुंच कर देखा कि आयेशा की अनुग्रह से आसमानी के सङ्गतिलोतमा भी पहुंच गयी । वह अभिराम स्वामी के पैर पर गिर कर रोने लगी। स्वामी जी ने सन्तोष देकर कहा ' ईश्वर की कृपा से तुम सब दृष्ट के हाथ से छूटी हो अब यहां ठहरना उचित नहीं है। मुसलमान यदि सुन पावेंगे तो अबकी बार प्राण से मार डालेंगे चलो रातो रात यहां से चल दें।'

यह बात सब के मन भायी ॥

सतरहवां परिच्छेद ।

अन्त काल।

विमला के भागने के थोड़ेही काल पीछे एक कर्मचारी ने जगतसिंह से कारागार में जाकर कहा।

युवराजा जवाव साहेब का मरण काल समीप है, वे आपको बुलाते हैं।'