सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६७
द्वितीय खण्ड।



वृक्ष की भांति आप भी भूमि पर अन्टचित गिर पड़ा। बिमला ने अपना काम कर लिया।

'पिशाची। शयतानिन।'कह कर कतलूखां चिल्लाने लगा। और मुंह से फेन छूटने लगा।

बिमला ने कहा'मैं पिशाची नहीं हूं,शयतानिन नहीं हूं मै तो बीरेन्द्र सिंह की विधवा स्त्री हूं,और वहां से झठ निकल खड़ी हुई।

कतलूखां को हिचकिचीबंध गई तथापि यथाशक्य चिल्लाता रहा। स्त्रियां भी सब रोने लगीं। बिमला भी रोते २ बची। भीतर बात चीत करने का शब्द सुन भागी एक कोठरी में बहुत से पहरे वाले और खोजा बैठे थे,उन्होंने उसको रोते देख पछा'क्या हुआ?'

उसने उत्तर दिया 'बड़ा अनर्थ हुआ। शीघ्र जाओ,गृह में लुटेरे घुसे हैं,मैं तो जानती हूं कि नवाब मारै गए।'

इतना सुनते ही वे सब औंधे मुंह दौड़े। बिमला भी महल के द्वार की ओर भागी। वहां के पहरे वाले सब सो रहे थे वह निर्विघ्न द्वार के बाहर पहुंची। चारो ओर उसकी ऐसाही देख पड़ा तब वेग से दौड़ने लगी! फाटक पर पहुंच कर देखा तो वहां सब जागते थे। एक ने उसको देख कर पूछा 'कौन है! कहां जाती है?'

उस समय महल में बड़ा कोलाहल हो रहा था, चारो ओर से लोग उसी ओर भागे जाते थे। बिमला ने कहा 'यहां बैठे क्या करते हो? कोलाहल नहीं सुनते हो?'

पहरे वाले ने पूछा 'कैसा कोलाहल ?'

बिमला ने कहा 'महल में अनर्थ हो रहा है, लुटरे आ पहुंचें हैं।'