पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/८३

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द्वितीय खण्ड।



पत्र को पढ़ कर आप अकेले इस स्थान पर चट आवे। इति निषदन। अहं ब्राह्मणः।'

पत्र पढ़ कर राजकुमार को बड़ा आश्चर्य हुआ। मन में सोचने लगे कि अब क्या करना उचित है? किसी शत्रु नेन इस पत्र को भेजा हो। परन्तु ब्रह्मशाप का जो बड़ा भय था इस से अपनी सेना को आगे बढ़ने की आज्ञा दी और बोले 'तुम लोग हमारी राह न देखना हम वर्द्धमान अथवा राजमहल में आकर तुम को मिलेंगे।' और आप अकेले उसी शाल बन को चले!

पूर्वोक्त झोपड़ी के समीप पहुंच कर घोड़े को पेड़ में बांध दिया और इधर उधर देखने लगे परन्तु कहीं कोई मनुष्य न देख पड़ा। तब उसके भीतर घुसे देखा तो उसी तरह एक ओर कबर और एक ओर चिता पनी है। चिता पर एक ब्राह्मण नीचे मुंह किये बैठा रो रहा था।

राजकुमार ने पूछा 'महाशय, आपही ने मुझको खुलवाया था?

ब्राह्मण ने सिर उठाया तो राजकुमार ने अभिराम स्वामी को पहिचाना और मन में विस्मय, कौतूहल और आह्माद तीन प्रकार का भाव उत्पन्न हुआ। प्रणाम करके व्यग्रता से बोले--

'मैंने तो आप के दर्शन मिलने के लिये बड़ा उद्योग किया पर क्या कहूं। आए यहां क्या करते है?

अभिराम स्वामी ने आंसू पोछ कर कहा 'अब तो यही रहता हूँ।'

स्वामीजी का उत्तर समाप्त नहीं होने पाया कि युवराज ने फिर पूछा 'आपने मुझको क्यों स्मरण किया? आप रोत क्यों है?

मभिराम स्वामी ने कहा कि 'मैं जिस कारण रो रहा हूँ उसीके लिये बुलाया है तिलोतमा अब मरती है।'