दुर्गेशनन्दिनी विलोत्तमा का जैसा स्नेह था वह मन्दिर में प्रकाश हो चुका है, तिलोत्तमा भी उसको वैसाही चाहती थी। बीरेन्द्रसिंह के दूसरे साथी अभिराम स्वामी सर्वदा दुर्ग में नहीं रहते थे कभी २ बाहर भी चले जाते थे, उनकी बहुदर्शिता और बुद्धिमानी में कुछ सन्देह नहीं, संसारिक विषयों को त्याग अहर्निश नेम धर्म में लगे रहते थे और राग क्षोभ का भी उन्होंने त्यागन कर दिया था। बीरेन्द्रसिंह ने इनको अपना दीक्षा गुरु बना रक्खा था।
इन दोनों के अतिरिक्त आसमानी नाम की एक और परिचारिका बीरेन्द्रसिंह के साथ आई थी॥
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तिलोत्तमा और विमला दोनों मन्दिर से चलकर कुशल पूर्वक अपने घर पहुंच गईं। तीन चार दिन के अनन्तर एक दिवस बीरेन्द्रसिंह अपने 'दीवानखाने' में मसनद पर बैठे थे कि अभिराम स्वामी वहां आन पहुंचे, बीरेन्द्रसिंह ने उठकर स्वामीजी को दण्डवत किया और बैठने के निमित्त एक कुशासन बिछा दिया और आज्ञा पाकर आप भी बैठ गए । अभिराम स्वामी बोले ।
बीरेन्द्र ! आज मैं तुमसे कुछ कहा चाहता हूँ ।
बीरेन्द्रसिंह ने कहा आज्ञा-महाराज ?