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पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/३७

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बिमला हंस कर बोली "फिर क्यों इतना भाव करती हो?"

तिलोत्तमा ने कहा तू जा यहां से? अब मैं तेरी बात न सुनूंगी।

वि० । तब मैं मन्दिर में न जाउं—!

ति० । मैं क्या तुझको कहीं जाने को मना करती हूं जहां जी चाहे जा न।

बिमला हंसने लगी और बोली कि तब मैं मन्दिर में न जाऊंगी।

तिलोत्तमा ने सिर झुका के कहा—जा।

बिमला फिर हंसने लगी और कुछ कालान्तर में बोली अच्छा तो मैं जाती हूं और जब तक मैं न आऊं सो न जाना?'

तिलोत्तमा ने मुस्किरा के अपनी सम्मति प्रकाश की।

जाते समय बिमला ने एक हाथ तिलोत्तमा के कन्धे पर धर दूसरे से उसकी दाढ़ी चूम ली और उसके बिदा होते तिलोत्तमा के आँखों से आंसू टपक पड़े।

द्वार पर आसमानी ने आकर विमला से कहा—सर्कार तुझको बुलाते हैं।

तिलोत्तमा ने सुन कर चुपके से आकर "यह श्रृंगार उतार के जाना"। कहा

बिमला बोली "कुछ भय नही है" और विरेन्द्रसिंह के बैठक में चली गई। सिंह जी सैन कर रहे थे और एक दासी पैर दाबती थी और दूसरी पंखा झलती थी। पलंग के पास खड़ी होकर बिमला ने पूछा "महाराज की क्या आज्ञा है?"

बीरेन्द्रसिंह ने सिर उठा कर देखा और चकित हो कर कहा "विमला! आज तू सज के कहां निकली?"