पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/४२

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दसवां परिच्छेद।
आसमानी का प्रवेश।

विद्या दिग्गज की मनमोहनी आसमानी के रूप देखने की इच्छा पाठकों के मन में अवश्य होगी परन्तु उसका वर्णन बिना सरस्वती की सहायता नहीं हो सकता अतएव देवी का आवाहन करता हूं।

हे वागदेवी! हे कमलासनि! हे शरदेन्दु आनन धारिणी! हे अमलकमलवत् भक्तवत्सल चरन! हे आज मैं तुम्हारीही शरण चाहता हूं। आसमानी के रूप वर्णन में मेरी सहायता करो हे महेश मुख चन्द्र चकोरी! हे जगदंब! दया पूर्व्वक साहस प्रदान करो मैं रूप वर्णन की इच्छा करता हूं। हे विद्याप्रदायनि! हे अधम उधारणि! हे अविद्या तिमिरनाशकारिणि! मेरे हृदय के मतिमन्दता रूपी अन्धकार का नाश करो। हे माता! तेरे दो स्वरूप हैं, जिस रूप से तूने काली,दास को बर देकर रघुवंश , कुमार सम्भव, मेघदूत और शकुन्तला की रचना कराई, जिस बर के प्रभाव से बाल्मीकि ने रामायण, भवभूति ने मालती माधव, और भारवि ने किरातार्ज्जुनीय बनाई वह रूप धारण करके मुझ को क्लेश न दे, जिस रूप के ध्यान से श्रीहर्ष ने नैषध बनाया, भारतचन्द्र ने विद्या का अपूर्व रूप वर्णन किया जिसके प्रसाद से दाशरथी राम का प्रादुर्भाव हुआ और जो मूर्ति अद्य पर्यन्त बटतला में विराजमान है, उसी स्वरूप का टुक मुझको दर्शन दे, में आसमानी के रूप राशि का वृत्तान्त लिखूंगा।

आसमानी की वेणी नागिन की भांति पीठ पर लटकती थी उसको देख उर्गिणी मारे भय के बिल में समाय गई