पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/४३

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बिधना ने देखा कि हमारी सृष्टि में विघ्न पड़ता है, सांपिन बिल में रहेगी तो मनुष्य को काटैगी कौन? और पोंछ पकड़ कर बाहर खींच लिया। फणिनी झुंझला कर सिर पटकने लगी यहां तक कि माथा चिपटा होगया, उसीको अब लोग फण कहते हैं। मुंह आसमानी का अत्यन्त सुंदर था। चन्द्रमा मारे लज्जा के छिप रहे और ब्रह्मा के पास फ़रियाद लेकर गए, ब्रह्मा ने उन को समझा कर फिर भेजा और कहा कि जाओ अब स्त्रियां घूंघट से मुंह छिपाये रहैंगी, किन्तु भय के मारे आज तक उनका कलेजा सूखकर काला हो रहा है। नयनों को देखकर खजानोंने बस्ती को रहना छोड़ जंगल की राहली, विधना डरीं कि ऐसा न हो कि ये भी उनके पीछे चले जाय, इस कारण दो पलक बना के पिंजड़े में बन्द रक्खा। नाक गरुड़की इतनी लम्बी थी कि आज तक पक्षिराज उसके भयसे उड़ते फिरते हैं। ओठों की लाली देख दाड़िम ने बंगदेश का रहना त्याग किया। हाथियों ने बड़ा श्रम किया कि आसमानी को चाल में परास्त करैं, पर असमर्थ हो ब्रह्मदेश को भागे, जूड़ा की ऊंचाई देख धवलागिरि के मन में बड़ा सोच हुआ और बहुत कसमकस किया पर क्या करैं डील से हैरान थे, अन्त को न रह गया और रोने लगे कि आज तक नदी प्रवाह द्वारा आंसू चले जाते हैं।

परन्तु निष्कलंक तो संसार में इश्वर ने अपने अतिरिक्त और किसी को रक्खाही नही। इस अनुपम सौन्दर्य्य के साथ एक फ़ी भी लगी थीं, आसमानी विधवा थी। उसने दिग्गज के कूटी में आकर देखा की द्वार बन्द है और भीतर दीप जल रहा है। पुकारा महाराज।

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