सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[५३]


कि वह दुर्ग के द्वार पर जा कर सास लगा अतएव कुछ चिन्ता न कर मन्दिर की ओर चली।

चारो ओर देखती थी किन्तु राजपुत्र का कोई चिन्ह नहीं दीखता था और मन में कहने लगी कि उन्होंने तो कोई संकेत भी नहीं बताया था अब उन को कहां ढूढूं। यदि न मिले तो व्यर्थ क्लेश हुआ। ब्राह्मण को भी मैंने भगा दिया अब अकेली फिर कर कैसे जाउंगी। शैलेश्वर! तूही रक्षक है।

बट के पेड़ के नीचे से मन्दिर में जाने की राह थी। जब बिमला वहां पहुंची और सांड न देख पड़ा तो घबराई और स्वेत बस्तु भी जो दूर से झलकती थी गुप्त हो गई। मैदान में भी तो सांड़ कहीं नहीं देख पड़ा था!

अन्त को वृक्ष के पीछे एक मनुष्य का बस्त्र दृष्टिगोचर हुआ। बिमला मन में डरी और मन्दिर की ओर चली और सीढ़ी पर चढ़ के केवाड़ को ढकेला किंतु वह बन्द था। भीतर से शब्द हुआ "कौन!" विमला ने साहस पूर्वक धीर धारण कर के कहा मैं एक स्त्री हूं, यहां विश्राम करने को आई हूं।

केवाड़ खुल गया, देखा कि मन्दिर में दिया जलता है और सामने ढाल तलवार बांधे एक मनुष्य खड़ा है।

कुमार जगतसिंह पहिले से आकर बिमला की राह देख रहे थे।

------