सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[६२]


यहीं टहरैं मैं अभी बर्छा लिए आती हूं और झट पट एक खिड़की की राह से अपनी उसी कोठरी में घुसी जहां श्रृंगार कर रही थी और छत के उपर एक कोठरी का ताला खोल भीतर गई और फिर ताला बन्द कर दीया। इसी प्रकार गढ़ के शस्त्रशाला में पहुंची। और पहरे वाले से बोली 'मैं तुमसे एक वस्तु मांगती हूं किसी से कहना न। मुझको दो बर्छा देओ मैं फिर दे जाऊंगी।'

पहरे वाले ने घबरा कर पूछा 'माता तुम बर्छा लेकर क्या करोगी।?'

बिमला ने कहा आज वीरपंचमी का व्रत है जो स्त्री आज व्रत रहती हैं उनको वीर पुत्र उत्पन्न होता है इसी लिये रात्रि को अस्त्र की पूजा करूंंगी किसी से कहना मत। प्रहरी को विस्वास होगया और उसने दो बर्छा निकाल कर दे दिया और बिमला उसी प्रकार दौड़ती हुई कोठरी में से होकर खिड़की के राह बाहर आई किन्तु शीघ्रता के कारण ताला खुला छोड़ आई यही बुरा हुआ। जंगल के समीप एक वृक्ष था उस पर शस्त्रधारी बैठा था उसने बिमला को आते जाते देखा था, ताला खुला देख वह झट भीतर घुसा और दुर्ग में पहुंच गया।

यहां राज पुत्र ने बिमला से बर्छा ले फिर वृक्ष पर आरोहण करके देखा तो एक मनुष्य देख पड़ा दूसरा जाता रहा। एक बर्छा बायें और एक दहिने हाथ में ले ऐसा तिग कर मारा कि वह मनुष्य तुरन्त लुण्ड मुण्ड हो कर नीचे गिर पड़ा।

जगतसिंह शीघ्र वृक्ष के नीचे उत्तर उसी स्थान पर गए और देखा कि एक मुसलमान सैनिक मरा पड़ा है, बर्छा