पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

[५]

कान में मणि कुण्डल पड़ा था ओर वक्षस्थल में हीरे की माला चित्त को मोहे लेती थी।

परस्पर के समारम्भ से दोनों ओर परिचय निमित्त विशेष व्यग्रता थी किन्तु कोई अग्रसर नहीं हुआ।

पहिले युवा ने अपने को उद्वेग रहित करने की इच्छा कर बड़ी स्त्री से कहा “जान पड़ता है तुम किसी बड़े घर की स्त्री हो परन्तु पता पूछने में संकोच मालूम होता है किन्तु हमारे पता न बताने का जो कारण है वही तुम्हारा भी हेतु नहीं होसक्ता अतएव दृढ़ता पूर्वक जिज्ञासा करता हूं।

स्त्री ने कहा, महाशय हमलोगों को पहिले अपना पता बताना किसी प्रकार योग्य नहीं है।

युवा ने कहा कि पता बतलाने का पहिले और पीछे क्या?

फिर उसने उत्तर दिया कि स्त्रियों का पताही क्या? जिसका कोई अल्ल नहीं वह अपना पता क्या बतावेंगी? जो सर्वदा पर्दे में रहा करती हैं वह किस प्रकार अपने को प्रख्यात करें? जिस दिन से विधाता ने स्त्रियों को पति के नाम लेने को मना किया उसी दिन से उनको बेपते कर दिया।

युवा ने इसका कुछ उत्तर न दिया क्योंकि उनका मन दुर्चित्त था।

नवीना स्त्री अपने घूंघट को क्रमशः उठाकर सहचरी के पीछे तिरछी चितवन से युवा को देख रही थी। वार्तालाप करते २ पथिक की भी दृष्टि उसपर पड़ी और दोनों की चार आंखें हुंई और परस्पर अलौकिक आनन्दप्राप्ति पूर्वक दोनों के नेत्र ऐसे लड़े कि पलकों को भी अपना सहज स्व-